डीएवी वाली स्वाति

 शिमला से वापस घर लौटे एक हफ्ता बीत चुका था। छुट्टी ख़त्म होने में अभी भी कुछ दिन बचे थे। शाम का वक्त था सो बाहर बरामदे में बैठा था तभी बड़ी बहन की बेटी ने छत पर से आवाज लगाया, "मामू, नाना जी बुला रहे हैं।" मैं उठा और छत पर जाने लगा। सीढ़ियां चढ़ते - चढ़ते एहसास हुआ कि बचपन से बस आवाज़ें लगाई जा रही हैं- " छोटू, पापा ऊपर बुला रहे हैं। छोटू, पापा कुछ बात करना चाहते हैं तुमसे। छोटू ये.... छोटू वो...बस!" ऊपर जाता तो कुछ इधर - उधर की बातें पूछते और वापस जाने को बोल देते। बचपन में मैं सोचता था कि इनके हाथ - पैर अभी सलामत हैं तो ख़ुद नहीं आ सकते नीचे बात करने! ये "मैं ही सर्वोपरि हूं" का ढोंग क्यों? मन में इन सब विचारों का जमघट बोलता मुझसे कि एक दिन तो जवाब देना ही है इन्हें, बस उस वक़्त ये पूछने से रोकता मुझे बस मेरे अच्छे -सुशील लड़के की छवि जो आस-पड़ोस में बन चुकी थी।


ख़ैर, अब भी बिना कुछ कहे दूसरी मंजिल पर उनके कमरे में चला आया। मन में "27 वर्ष का छोटा बालक होना" प्रतीत हो रहा था। इन दिनों मेरी शादी की बात जोरों - शोरों से चल रही थी। पिताजी के एक दोस्त जो आर्मी से रिटायर हो चुके थे उनकी बेटी से शादी पक्की होने वाली थी या यूं कहें, हो चुकी थी। बड़ी दीदी ने बताया कि लड़की SBI में जॉब करती है और वह अभी बग़ल के ही ज़िले में कार्यरत है। पड़ोस में रोज़ यही चर्चा थी कि सोनी बाबू को जैकपॉट लगा है। प्राइवेट नौकरी वाले को सरकारी बहू! ख़ैर। 


सोनी बाबू -मेरे पिताजी। उनका ये नाम मुझे उन्हें नापसंद करने की दूसरी वजह थी। पहली वज़ह मां का गुज़र जाना था। जब मैं कॉलेज में था तब मां की तबीयत बहुत बिगड़ गई थी और पिताजी उस रात उन्हें अस्पताल ले जाने के बजाय बस बगल के दुकान से कुछ दवाइयां खरीद लाए थे। रात बीती, सुबह हुई पर मां ने अपनी आंखें नहीं खोली। कॉलेज से वापस लौटा तो पता चला कि पहले भी मां की तबीयत ख़राब होती रहती थी पर सोनी बाबू कभी अस्पताल लेकर नहीं गए उनको।



मां के गुज़र जाने के बाद पिताजी से दूरियां इतनी बढ़ गई कि 5 साल के बाद इस  बार घर आना हुआ था। छोटी बहन की शादी में भी काम का हवाला देकर मैं घर नहीं आया था। घर जाने का विचार ही काटने को दौड़ता था। मां के जाने के बाद बड़ी बहन यहीं रहने लगी थी। चार-पांच महीने के बाद कुछ दिनों के लिए अपने ससुराल भी जाती रहती थी। 


उस अतीत को छोड़ अब मैं छत पर सोनी बाबू के कमरे में था। गर्दन अभी भी झुके हुए थे। 

"तुम्हारी बहन ने तो बताया ही होगा रिश्ते के बारे में। मेरे एक दोस्त हैं, उन्हीं की बेटी है। बैंक में है, तस्वीर तो बहन ने दिखाया ही होगा! अच्छी लड़की है। कर लो शादी! मैंने हां भी कर दिया है रिश्ते के लिए।" यह बोलते - बोलते सोनी बाबू एक सिगरेट जला चुके थे। "अभी कर लो शादी, हम फिर रहे ना रहें। ये कह कर वो खांसने लगे और दबे हुए गुस्से के साथ मैं उन्हें खांसता हुआ देखता रहा। शांत होकर उन्होंने कहा कि आर्मी बाबू बोल रहे थे कि तुम दोनों अगर मिल लो तो अच्छा रहेगा। दस मिनट के लेक्चर के बाद मैंने हामी भर दी।


कमरे से बाहर निकला तो सोचा कि कुछ तो कड़वा जवाब दे देना चाहिए था लेकिन कमरे से बाहर आते ही बड़ी बहन फ़ोन में तस्वीर दिखाने लगी। ना - नहीं करते हुए जब तस्वीर देखा तो शक्ल जाना - पहचाना लग रहा था और ठीक-ठाक भी। वैसे भी तस्वीर में शक्ल देख कर मैं किसी को अच्छा या बुरा कैसे कह सकता था? भगवान ने शक्ल के हिसाब से इंसानों को अलग-अलग बनाया है अच्छा - बुरा नहीं। ये कुछ बातें थी जो घर से बाहर रहकर सीखा था, इंजीनियरिंग तो वैसे भी सीख नहीं पाया।

"नाम क्या है इसका?" मैंने बहन से पूछा।

स्वाति, यहीं डीएवी से पढ़ाई पूरी की है इसने।

"डीएवी वाली स्वाति!" बोल कर मैं चुप हो गया। बहन भी चुप ही रही।


पुरानी बातें याद करते-करते मैं घर के बाहर आ चुका था और फ़ोन की तस्वीर से कुछ धुंधली यादें सामने आ रही थी जिसमें सिर्फ़ और सिर्फ़ बचपन का एक कोरा सा दिन था।


 दिन था पन्द्रह अगस्त। सभी स्कूल के बच्चे ज़िले के एकमात्र खाली मैदान में अपनी - अपनी झांकी लेकर जमा हुए थे। मैं तब आठवीं कक्षा में रहा होऊंगा। शर्मीले स्वभाव से लबरेज़ मैं अपने लाइन में दुबक पर कहीं पर खड़ा था और जिलाधिकारी कुछ देर में पहुंचने वाले ही थे कि अचानक हंगामा शुरू हो गया। बच्चे इधर-उधर बिखरने लगे और शिक्षक उन्हें वापस उनके मांद में भेजने में लगे रहे। तभी किसी ने बताया कि किसी स्कूल के एक स्टूडेंट ने एक लड़की को भीड़ में ग़लत तरीके से छूने की कोशिश की थी लेकिन लड़की ने एक लताड़ में ही उस लड़के के नाक से खून निकाल दिया। बाद में पता चला कि लड़की ने मार्शल आर्ट सीख रखा था। उसी दिन कुछ देर बाद डीएम ने उसे सब स्टूडेंट्स के सामने सम्मानित भी किया था। तभी देखा था मैंने उस डीएवी वाली स्वाति को। वो दो या तीन साल सीनियर रही होगी मुझसे।


यह सोचते - सोचते अब सर भारी होने लगा था तभी बहन ने खाने के लिए आवाज़ लगाया और मैंने अचानक से अपने चेहरे को दोनों हाथों से ढक लिया। "क्या अब भी मार्शल आर्ट जानती होगी वो? फौजी की बेटी है, जानती ही होगी। पर मैं छेड़खानी करने थोड़े जा रहा हूं!" इन सब विचारों से ओतप्रोत होते अब मैं बिस्तर पर था और विचारों में उससे मिलने के लिए बस और बाइक के बीच चुनाव करते - करते मेरी आंखें लग गई थी।


सुबह थोड़ी देर से जागा तो सोनी बाबू पूछ पड़े कि तबीयत ठीक है ना!

"ख़राब रही तो ठीक कर दोगे क्या? जैसे मां का इलाज करवाया था!" मैं कहना तो यही चाहता था पर कुछ बोल नहीं पाया। सिर्फ, हां में सिर हिला दिया। ठीक ग्यारह बजे सज - धज के बस के बीच सबसे पीछे वाली सीट पर किताब पढ़ता हुआ पाया गया। मकसद था, मार्शल आर्ट वाली लड़की से मुलाकात। डीएवी वाली स्वाति से मुलाक़ात!





आठवीं कक्षा में पढ़े हुए " बस की यात्रा " के ठीक उलट ये यात्रा काफ़ी सही रही। डेढ़ बजे तक मैं स्वाति के बैंक में भी पहुंच चुका था। बैंक में सिक्योरिटी गार्ड को बताया कि मुझे स्वाति मैडम से मिलना है। गार्ड बैंक के दूसरे मंजिल पर गया और कुछ देर बाद एक लड़की नीचे उतरते हुई दिखी। मैं समझ गया कि वो स्वाति ही है। एक दूसरे से औपचारिक हाल - चाल पूछते हुए हम दोनों बैंक से बाहर आ गए। 

" कहां चलना है? " मैंने उससे पूछा।

" अभी तो वहां....उस जूस कॉर्नर पे चलेंगे, " उसने जवाब दिया। बिल्कुल वैसे ही जैसे सोनी बाबू बचपन में मेले में घुमाया करते थे।

सड़क पार करके अब हम जूस स्टॉप पर थे।

" क्या पियोगे आप?" उसने पूछा।"

" कुछ भी...."

" ऑरेंज जूस!"

" हां...और आप?" मैंने उससे पूछा।

" सेम, " उसने कहा। " वैसे ये आप - आप करके बात करने में एकदम दीदी टाईप फ़ील हो रहा है मुझे।"

" मुझे भी घुटन रही है इससे" कहकर मैं हंस पड़ा।


जूस पीते हुए मुझे एहसास हुआ कि जैसा सोचा था उतना बुरा तो नहीं साबित हो रहा था उससे मिलना। सोचा था कि आज का वक़्त बस काटने को दौड़ेगा पर सबकुछ सही जा रहा था। बचपन के उस 15 अगस्त वाले दिन से तो अत्यंत सहज और उतनी ही शांत भी। जूस ख़त्म करने के बाद हमने शॉपिंग मॉल जाने का फैसला किया। ये आईडिया भी उसका ही था जो कि इस दोपहर में सही भी था। ऑटो में बैठ हमदोनों मॉल के लिए रवाना हो गए। वैसे ये शहर कुछ ख़ास बड़ा नहीं था पर मॉल एकदम मेट्रो सिटी के लायक ही बना रखा था, वो भी शहर के दूसरे छोर पर। " ज़रूर कोई दूरदर्शी या फिर कोई अंत्यंत अमीर इंसान ही मालिक होगा इसका," मैंने स्वाति से सवाल करने के लहजे में कहा। उसने बताया कि ये मॉल शहर के ही किसी बाहुबली नेता का है। इन बातचीत में कुछ खास बातें हो ना हो पर हम एक दूसरे के साथ और भी ज़्यादा कंफर्टेबल फील कर रहे थे।


मॉल में हम दो आवारा दोस्त की तरह बस एक से दूसरे स्टोर तक घूमते रहे। उसी दौरान सोनी बाबू का फ़ोन आया, कहने लगे, " कुछ ख़रीद कर दे देना उसको, साड़ी वगैरह.... कुछ भी।" फिर से एक बार ऑर्डर दिया गया था और फिर से उसका पालन करना था। 

" कुछ खरीदना है तुम्हें?" मैंने स्वाति से पूछा।

"नहीं तो.... तुम्हें? " स्वाति ने पूछा।

मैंने सोनी बाबू के दिए हुए ऑर्डर को जस - तस उसके सामने प्रस्तुत कर दिया। पांच मिनट के ना - नुकुर के बाद हम अब साड़ी खरीदने में लग गए। आधे घंटे लगे उस जद्दोजहद में।


मॉल से बाहर निकले तो दोनों को भूख लग चुकी थी। क्या खाया जाए के सवाल के साथ हम डोमिनोज़ पहुंचे। पिज़्ज़ा खाने। पेट पूजा के बाद हमलोग पैदल ही चलने लगे। "जब थक जाएंगे तब ऑटो पकड़ लेंगे।" ये प्रस्ताव मेरा ही था और स्वाति ने भी " ठीक है, " कहकर मंजूरी दे दी। मेरा मानना है कि किसी को जानने के लिए उससे ढेर सारी बातों का आदान - प्रदान ज़रूरी होता है। घर वापसी के लिए बस स्टैंड पहुंचने से पहले मैं बहुत कुछ जानना चाहता था और बताना भी। लेकिन इससे पहले कि मैं कुछ बोल पाता, सुबह से जो भी खाया था वो वहीं उगल दिया। कुछ दूर आगे जाने के बाद एहसास हुआ कि ये पैदल चलने वाला आईडिया अब सही नहीं है। सर एकदम से भारी हुआ जा रहा था और जकड़न भी बढ़ती ही जा रही थी। मैंने स्वाति से कहा कि मुझे अब वापस लौटना चाहिए पर उसने मना कर दिया। 

" अभी कुछ देर फ्लैट पर चलकर आराम कर लो, एक दो घंटे बाद अगर सरदर्द कम हो जाए तो बस पकड़ लेना, " स्वाति ने ऑटोवाले को रुकने का इशारा करते हुए कहा। 


सरदर्द थोड़ा ज़्यादा था इसलिए मैं भी चुपचाप ऑटो में बैठ गया और कुछ देर बाद हम स्वाति के फ्लैट पर थे। कमरा एकदम साफ़- सुथरा, बिल्कुल वैसा ही जैसा हर लड़की का होता है। धूल और कचरे का कोई नामोनिशान नहीं। दीवार पर फ़ैमिली फोटो भी टंगी हुई थी यानि कोई अनजान अगर गलती से उस कमरे में चला भी जाए तो उसे तुरंत पता चल जाए कि कमरा किसी लड़की का है। ख़ैर, स्वाति ने सबसे पहले कुछ दवाईयां दी जो रास्ते में उसने ख़रीदा था। दवा खाने के बाद आँख बंद करके मैं सोफे पर बैठ गया। जब भी आंख खुलती तो एहसास होता कि अब मुझे चलना चाहिए। एक बार आंख खुली तो एक दूसरी लड़की दिखी, चेहरा कुछ जाना पहचाना लग रहा था। उसने ' हाय ' कहा तो मैंने भी हैलो कहकर हाथ हिला दिया। स्वाति वापस कमरे में आई तो उसने बताया कि वो लड़की अंजुम है और वो भी उसी बैंक में नौकरी करती है और वो दोनों पिछले दो सालों से साथ में ही रह रहे हैं। ये कहकर स्वाति किसी से फ़ोन पर बात करने लगी। मुझे भी याद आया कि अरे हां, इसे तो बैंक में देखा था। कुछ देर बाद स्वाति ने वापस आकर कहा कि उसने सोनी बाबू से बात कर ली है और आज मुझे वहीं रुकना है। मैं स्वाति के पास रुकना नहीं चाहता था लेकिन उसके जिरह और सोनी बाबू के ऑर्डर को ध्यान में रखकर मैं रुक गया।


शाम ढली और धीरे - धीरे रात हो चली। स्वाति और उसके फ्लैट मेट खाना बनाने लगे और मैं बाल्कनी में बैठ चांद को देखने लगा। बिल्कुल ऐसे, जैसे चांद देखना विद्या हो कोई और मैं एकलव्य। बीच - बीच में वो और अंजुम आती रहती और हम कुछ - कुछ इधर - उधर की बातें करते रहते। रात के दस बजे तक हम तीनों ने खाना लिया। खाना खाने के बाद भी हम साथ बैठ के बातें करते रहे। ऐसा लग रहा था कि सब अपने - अपने जीवन की दबी हुई बातों को बताने के लिए कोई श्रोता तलाश रहे थे। सबके पास सुख - दुःख का पिटारा भी था।

" कोई है तुम्हारी लाईफ में अभी?" मैंने अचानक से स्वाति से पूछा।

" क्यूं? " उसने इस तरह से पूछते हुए जवाब दिया जैसे वो एहसास दिलाना चाह रही थी कि अभी तक कोई रिश्ता उनके बीच बना नहीं है।

उसके ' क्यूं ' के बाद मैं एकदम चुप हो गया। कुछ देर तक हम चुप ही बैठे रहे। अंजुम को लगा कि उसका हमारे साथ बैठना अब सही नहीं तो " कल सुबह जल्दी उठना है, गुड नाईट" कहकर चली गई।


मुझे लग रहा था जैसे मैंने फ़िज़ूल में कोई बात पूछ लिया हो। सोच ही रहा था कि मुझे सॉरी बोल देना चाहिए उसे।  


" पता है, ये प्यार - व्यार मुझे समझ नहीं आता," कहकर वो चुप हो गई। " लेकिन मेरा एक दोस्त है, स्कूल में साथ में ही पढ़ा है और अभी भी फ़ोन पर बातें होते रहती है उससे कभी - कभी। स्कूल के बाद तीन - चार साल हम रिलेशनशिप में रहे। एक ही कॉलेज से हमने पढ़ाई भी पूरी की। कॉलेज के बाद मैं सरकारी नौकरी की तरफ़ जाने लगी और वो कहानी लेखन की ओर। धीरे - धीरे उसने एक कहानी संग्रह तैयार किया और जैसे - तैसे किसी लोकल पब्लिशर से छपवा भी लिया। बिकी पचास से भी कम। उसके बाद भी वो उसी दिशा में लगा हुआ है। जब मैं उससे हमारे रिश्ते के भविष्य पर बात करती हूं तो कुछ बता नहीं पाता। किताब ना बिकने की वज़ह से उसने शराब पीना शुरू कर दिया। उसके दिन का एक हिस्सा लिखने में बीतता और दूसरा शराब में। जब वो नशे में होता और हमारे रिश्ते के भविष्य की बातें होती तो बड़े अच्छे से कहता कि हमें एक दूसरे से शादी कर लेनी चाहिए। पैसा - वैसा तो कमा ही लेंगे हम दोनों। वो इतना प्यार जताता कि उसके लिखे हर पात्र की प्यार भरी बातें मेरे हिस्से में रख जाता था। इसके ठीक उलट जब वो पूरे होशोहवास में होता तो कहता कि उसे किसी और से शादी कर लेनी चाहिए। वो कहता था कि उसका ख़ुद का भविष्य धुंधला है तो मेरा सबकुछ कैसे संभालेगा। मैं उसे समझाती पर वो मुझे हर बार प्रैक्टिकल होने को कहता और हर बार हज़ार कारण बताता था कि क्यों हम दोनों को शादी नहीं करनी चाहिए। फिर कुछ दिन बाद शराब की दी हुई हिम्मत से दोबारा वही लैला - मजनू, इला - साजन, शिउली - डैन और मिलोनी - रफ़ी के प्रेम कहानी की उदाहरण देता। " इतना कहते - कहते स्वाति को एहसास हुआ कि आगे अब बात नहीं करनी चाहिए। उसने बस गुड - नाइट कहा और दूसरे कमरे में चली गई। उसने शाम में बताया था कि वो और अंजुम दूसरे कमरे में सो जाएगी। मैंने भी उससे ये नहीं कहा कि मुझे पूरी कहानी जाननी है और मैं चुप ही रहा। बात करते - करते घड़ी की सुई बारह के उस पार जा चुकी थी और मैं आंखों में झूठी नींद लिए बिस्तर पर लेट गया। 

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