मिथुन से शाहरुख

बचपन में फिल्में देखना कब से शुरू किया ये तो याद नहीं, बस याद हैं  कुछ फिल्में और कुछ अभिनेताओं के नाम जो उस वक़्त मिडिल क्लास परिवारों के हम जैसे बच्चों में काफी पसंद किए जाते थे। मिथुन चक्रवर्ती, धर्मेंद्र, सन्नी देओल और थोड़ा बहुत अजय देवगन की फ़िल्मे हमारी मेन्यू में पाए जाते थे।

हमारे जैसे बच्चों ने इनकी सारी फिल्में घोल के पी ली थीं। मिथुन की चांडाल, चीता, शेरा... धर्मेंद्र की शोले, लोहा.....तो अजय देवगन की गैर, दिलवाले, दिलजले..... इन फिल्मों की लिस्ट काफी लंबी है और अगर आप ध्यान से देखो तो इन सारी फिल्मों में हीरो को मुख्य रूप से एक ही काम करना होता था ..............
बदला लेना। वो हमारा धोनी होता था सो वो हमें कभी निराश भी नहीं करता था, कभी नहीं। फ़िल्म ख़त्म होने तक वो अपने पूरे परिवार को गवां कर भी विलेन से बदला ले ही लेता था। और हम ख़ुश। मानो हमने ही बदला लिया हो!

ज़ोया अख़्तर ने एक इंटरव्यू में कहा था कि भारत के लोग फिल्मों में वही देखना चाहते हैं जिनसे वो अपनी ज़िन्दगी में मोहताज रहते हैं।

इसलिए जब थोड़ा बड़ा हुआ ( उम्र से), पता नहीं क्यूं शाहरुख ख़ान पसंद आने लगा बेमतलब का। मैं शायद नौवीं क्लास में पहुंच चुका था तब तक। ये शाहरुख सिर्फ़ बदमाशों को मारने के लिए नहीं होता था। ये ज़रूरत पड़ने पर थप्पड़ भी लगा देता था,  फ़िल्म की हीरोईन से अच्छी - अच्छी बातें भी करता था और बात करते - करते रोने भी लगता था साथ में। बाकियों को ये अजीब पर मुझे कुछ अपना सा लगने लगा, जैसे मुझे करना हो ये निजी ज़िन्दगी में। जिससे शायद मोहताज भी था मैं।

धीरे - धीरे जब वक़्त बीतता चला जा रहा था मैं "शाहरुख ख़ान" से भी थोड़ा दूर चला जा रहा था। इतना कि मुझे देवदास पसंद आने लगी थी उसकी। स्कूल में जिसे पसंद करता था वो तब पारो दिखती थी मुझे या फिर ये कहो कि मुझे ऐसा लगता था कि काश उसकी भी शादी किसी और से हो जाए और मैं बस रोता रहूं बैठकर।
बदला लेने की भावना कब की जा चुकी थी। मिथुन का भूत कब का जा चुका था मेरे दिमाग से। पहले तो बस ऐसे सपने आते थे कि कोई आतंकवादी ग्रुप स्कूल पे अटैक कर दे और मैं अकेला ही बचा लूं सबको। अब ऐसा नहीं था।

बारहवीं के बाद गूगल से सारी अंडररेटेड बॉलीवुड फिल्मों को देखना शुरू किया और धीरे - धीरे ऐसी फ़िल्में पसंद आने लगीं जिनकी कहानी ज़मीन से जुड़ी हो......मुझसे जुड़ी हो।
मानो ग़ालिब दूर जा रहा हो और गुलज़ार पास। अब साला इम्तियाज़ अली खूब पसंद आने लगा था। शुरू देवदास से किया था....फिर रेनकोट.....फिर तनु वेड्स मनु....फिर लंचबॉक्स....मसान.... फोटोग्राफ भी। ऐसी कई फिल्में हैं जिन्हें देख कर लगता है मानो सिर्फ़ मेरे लिए बनाई गई हैं इन्हें।

उम्र बीत रही है, मैं खर्च हो रहा हूं
जान जा रही है फिर भी मैं बर्फ हो रहा हूं,
इस उम्मीद में, कि
एक फिल्म बनाऊं मैं
और तुम कहो -
"साला हमको ही लिख दिए हो बे तुम।"

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